ग़ज़ल
अब न भाए कोई महफ़िल कोई मंज़र मुझको
"कोई देता है सदा दूर से अक्सर मुझको"
कोई तरकीब नई ढूंढ ले अब तू जानम
तेरी हर चाल तेरा वॉर है अज़बर मुझको
एक दिन आएगा, हाँ होगा, हाँ आएगा
अपनी उल्फत का बना लेगा तू मेहवर मुझको
निआमतें लाख अता की हैं मरे रब तूने
दे दे अब एक हसीं नेक सी दुख्तर मुझको
संगे अस्वद में भी किया रब ने असर रक्खा है
एक बोसे से बना दे वो मुनव्वर मुझको
मेरी अवक़ात नहीं फिर भी बना दे हे मौला
मेरे आक़ा ﷺ के गुलामों का ही नौकर मुझको
मैंने जब नूर कही दिल की लगी दुनिया से
अहले दुनिया तो समझ बैठे सुख़नवर मुझको
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बक़लम - नून मीम - नूर मुहम्मद इब्ने बशीर
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